
राजौरी और पुंछ के निवासियों के लिए विस्थापन कोई नई कहानी नहीं है। 1990 के दशक में, जब सीमा पर गोलीबारी और तनाव चरम पर था, हजारों परिवारों को अपने घर, खेत और यादें छोड़कर सुरक्षित स्थानों की ओर पलायन करना पड़ा। अब्दुल रशीद, एक किसान, जो कभी राजौरी के एक छोटे से गांव में अपने खेतों में काम करते थे, आज जम्मू के एक शरणार्थी शिविर में अपने परिवार के साथ रहते हैं। वे बताते हैं, “हमारा गांव, जहां कभी मेले लगते थे और बच्चे गलियों में खेलते थे, एक रात में खामोश हो गया। गोलियों की आवाज और बमों के धमाकों ने हमारी जिंदगी छीन ली।”
सीजफायर के बाद अब्दुल को खबर मिली कि उनके गांव में अब शांति है। कुछ पड़ोसी अपने घरों को लौटने की बात कर रहे हैं। लेकिन उनके मन में सवाल उठता है—क्या वह घर अब भी उनका है? क्या वह मिट्टी, जिसमें उनकी जड़ें बसी थीं, अब भी उनकी प्रतीक्षा कर रही है? उनके बच्चे, जो शहर में पले-बढ़े, क्या उस गांव को अपना कह पाएंगे, जहां उनके पूर्वजों की कहानियां बसी हैं?
विस्थापन केवल घर छोड़ने की कहानी नहीं है। यह उस संस्कृति, परंपरा और पहचान को खोने की त्रासदी है, जो पीढ़ियों से एक जगह के साथ जुड़ी होती है। राजौरी और पुंछ के कई परिवारों ने अपने घर अस्थायी रूप से या हमेशा के लिए छोड़ दिए। सीजफायर ने उन्हें एक नया अवसर दिया है—अपने घर लौटने का, अपनी जड़ों को फिर से खोजने का। लेकिन इस अवसर के साथ अनिश्चितता और भय भी जुड़ा है। क्या यह शांति हमेशा बनी रहेगी? क्या वे अपने बच्चों को वहां सुरक्षित भविष्य दे पाएंगे?
सैनिकों की नजर से शांति
सीमा पर तैनात सैनिकों के लिए सीजफायर एक दोधारी तलवार की तरह है। सूबेदार अजय ठाकुर, जो पिछले 12 साल से पुंछ में तैनात हैं, कहते हैं, “जब गोलियां चलती थीं, तो कम से कम हमें पता था कि हमारा दुश्मन सामने है। अब यह शांति हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या यह स्थायी है, या फिर यह बस एक ठहराव है।” सैनिकों की जिम्मेदारी अब केवल सीमा की सुरक्षा तक सीमित नहीं है। वे अब स्थानीय लोगों में विश्वास जगाने का काम भी कर रहे हैं। अजय बताते हैं, “कुछ गांवों में लोग धीरे-धीरे लौट रहे हैं। वे अपने खेतों को फिर से जोत रहे हैं, अपने घरों को ठीक कर रहे हैं। लेकिन उनके चेहरों पर एक अनकहा डर साफ दिखता है।”
सीजफायर ने सैनिकों के काम करने के तरीके को बदल दिया है। अब उनकी प्राथमिकता न केवल सीमा की रक्षा करना है, बल्कि उन लोगों को सुरक्षा का भरोसा देना भी है, जो अपने घरों को लौटना चाहते हैं। लेकिन यह भरोसा देना आसान नहीं है। अजय कहते हैं, “लोगों को डर है कि अगर फिर से तनाव बढ़ा, तो क्या होगा? हम उन्हें सुरक्षा का वादा तो करते हैं, लेकिन युद्ध की अनिश्चितता कोई नहीं जानता।”
बुजुर्गों की आवाज में इतिहास
पुंछ के एक छोटे से गांव में रहने वाली 75 वर्षीय हाजरा बी ने अपने जीवन में कई युद्ध और कई सीजफायर देखे हैं। वे कहती हैं, “हर बार जब शांति आती है, लोग सोचते हैं कि अब सब ठीक हो जाएगा। लेकिन जंग कभी पूरी तरह खत्म नहीं होती। वह बस रुक जाती है और किसी नए रूप में फिर लौट आती है।” हाजरा का बेटा 2000 के दशक में सीमा पर हुई गोलीबारी में मारा गया था। इस दुख के बावजूद, उन्होंने अपने गांव को कभी नहीं छोड़ा। “यह मेरा घर है, मेरी धरती है,” वे कहती हैं। “मैं यहीं रहूंगी, चाहे जो हो जाए।”
हाजरा जैसे बुजुर्ग इस क्षेत्र की जीवित स्मृति हैं। उनकी कहानियां केवल नुकसान और दर्द की नहीं, बल्कि हिम्मत और जीवटता की भी हैं। वे उन लोगों के लिए प्रेरणा हैं, जो अपने घरों को लौटने की सोच रहे हैं। हाजरा कहती हैं, “लौटना मुश्किल है, लेकिन अगर हम नहीं लौटे, तो हमारी कहानियां, हमारी संस्कृति, हमारा इतिहास सब खो जाएगा।”
शांति का असली अर्थ
सीजफायर का मतलब केवल गोलियों का रुक जाना नहीं है। यह एक मौका है—अपने समुदाय को फिर से जीवंत करने का, अपनी धरती को फिर से अपनाने का। लेकिन यह मौका कई सवालों के साथ आता है। क्या सरकार उन लोगों के लिए पर्याप्त सहायता देगी, जो अपने घरों को लौटना चाहते हैं? क्या खंडहर हो चुके मकानों को फिर से बनाया जा सकेगा? क्या स्कूल, अस्पताल और बाजार फिर से पहले की तरह जीवंत होंगे? और सबसे बड़ा सवाल—क्या लोग उस डर को भूल पाएंगे, जो उनकी स्मृतियों में गहरे तक बसा है?
राजौरी और पुंछ में शांति का मतलब केवल सीमा पर सन्नाटा नहीं है। यह उन लोगों के लिए एक नई शुरुआत है, जो वर्षों से अनिश्चितता और डर के साये में जी रहे हैं। लेकिन यह शुरुआत आसान नहीं होगी। लौटने का फैसला केवल घर और खेतों तक सीमित नहीं है। यह एक भावनात्मक यात्रा है, जिसमें विश्वास, साहस और सामुदायिक एकता की जरूरत होगी।
एक नई सुबह की ओर
कुछ गांवों में, लोग धीरे-धीरे अपने घरों को लौट रहे हैं। खेत फिर से हरे-भरे हो रहे हैं, और बच्चे, जो कभी बंकरों में छिपते थे, अब खुले मैदानों में खेल रहे हैं। लेकिन हर कदम पर एक सवाल उनके साथ चलता है—क्या यह शांति स्थायी होगी? अब्दुल, अजय और हाजरा जैसे लोग इस सवाल का जवाब नहीं जानते। लेकिन वे यह जरूर जानते हैं कि अगर उन्होंने कोशिश नहीं की, तो उनका भविष्य केवल अतीत की छाया बनकर रह जाएगा।
लौटना केवल घर पहुंचने की बात नहीं है। यह उस आत्मा को फिर से जगाने की बात है, जो इस धरती में बसी है। राजौरी और पुंछ की वादियां, जो कभी हिंसा की चपेट में थीं, अब हरे-भरे खेतों और बच्चों की हंसी से गूंजना चाहती हैं। लेकिन यह गूंज तभी संभव है, जब लोग अपने डर को पीछे छोड़कर अपने घर की ओर कदम बढ़ाएंगे।
2021 का सीजफायर राजौरी और पुंछ के लिए एक नया अवसर लेकर आया है। लेकिन यह अवसर अपने साथ कई चुनौतियां भी लाया है। क्या लोग अपने घरों को लौट पाएंगे? क्या वे उस धरती को फिर से अपना कह पाएंगे, जो कभी उनकी थी? यह सवाल केवल अब्दुल, अजय या हाजरा का नहीं है। यह हर उस इंसान का सवाल है, जिसने युद्ध की त्रासदी देखी है और अब शांति की उम्मीद में जी रहा है।
लौटना एक जोखिम है, लेकिन यह जोखिम न लेना शायद उससे भी बड़ा नुकसान है। राजौरी और पुंछ की धरती अपने लोगों का इंतजार कर रही है। समय ही बताएगा कि वे लौटेंगे या नहीं। लेकिन एक बात निश्चित है—जब तक लोग इस सवाल को पूछ रहे हैं, तब तक उम्मीद जिंदा है। और जहां उम्मीद है, वहां एक नई सुबह की संभावना भी है।