
भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव की जड़ें 1947 के विभाजन में निहित हैं, जब कश्मीर का मुद्दा दोनों देशों के बीच विवाद का प्रमुख कारण बन गया। इस मुद्दे ने 1947, 1965, 1971 और 1999 के कारगिल युद्ध जैसे कई सैन्य संघर्षों को जन्म दिया। इन संघर्षों में तीसरे पक्ष, विशेष रूप से अमेरिका, की भूमिका हमेशा चर्चा में रही है।
शीत युद्ध के दौरान, अमेरिका ने पाकिस्तान को सैन्य और आर्थिक सहायता प्रदान की, क्योंकि वह सोवियत संघ के खिलाफ उसकी रणनीति का हिस्सा था। दूसरी ओर, भारत ने गुट-निरपेक्ष नीति अपनाई और सोवियत संघ के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए। हालांकि, 21वीं सदी में भारत-अमेरिका संबंधों में उल्लेखनीय सुधार हुआ। भारत अब इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने के लिए अमेरिका का महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदार है। फिर भी, कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दों पर भारत और अमेरिका के बीच मतभेद बने हुए हैं। भारत का स्पष्ट रुख है कि कश्मीर एक द्विपक्षीय मुद्दा है, जिसमें किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता स्वीकार्य नहीं है।
2025 का घटनाक्रम: पहलगाम हमला और भारत की प्रतिक्रिया
2025 में तनाव का नया दौर 22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के साथ शुरू हुआ। इस हमले की जिम्मेदारी पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठन “द रेजिस्टेंस फ्रंट” ने ली। भारत ने इस हमले को अत्यंत गंभीरता से लिया और 7 मई को “ऑपरेशन सिंदूर” के तहत पाकिस्तान के पंजाब प्रांत और PoK में आतंकी ठिकानों पर लक्षित हवाई हमले किए। भारतीय रक्षा मंत्रालय ने इन हमलों को “नियंत्रित” और “गैर-आक्रामक” बताया, जिसमें पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठानों को निशाना नहीं बनाया गया।
पाकिस्तान ने इन हमलों की कड़ी निंदा की और जवाबी कार्रवाई की धमकी दी। इसके बाद, सीमा पर ड्रोन हमले और गोलीबारी की घटनाओं में वृद्धि हुई। इस बढ़ते तनाव के बीच, अमेरिका ने मध्यस्थता की पेशकश की और 10 मई को युद्धविराम की घोषणा की। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसे “विवेकपूर्ण निर्णय” का परिणाम बताया और दोनों देशों की सराहना की।
अमेरिका की मध्यस्थता: भारत की असहजता के कारण
अमेरिका की इस मध्यस्थता ने भारत में कई सवाल खड़े किए। भारत की विदेश नीति का मूल सिद्धांत है कि कश्मीर और भारत-पाकिस्तान संबंधों से जुड़े मुद्दे द्विपक्षीय हैं, और इसमें किसी तीसरे पक्ष की भूमिका स्वीकार्य नहीं है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि युद्धविराम भारत की शर्तों पर हुआ और इसमें अमेरिका की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं थी। फिर भी, कुछ कारणों ने भारत में असहजता की भावना को जन्म दिया:
- ट्रंप की एकतरफा घोषणा: डोनाल्ड ट्रंप ने युद्धविराम की घोषणा अचानक और एकतरफा ढंग से की, जिसमें उन्होंने भारत और पाकिस्तान को “सामान्य बुद्धि” का प्रदर्शन करने के लिए बधाई दी। यह बयान भारत के लिए असहज था, क्योंकि यह संकेत देता था कि भारत ने बाहरी दबाव में युद्धविराम स्वीकार किया। भारत ने इस धारणा को सिरे से खारिज करते हुए अपनी “आतंकवाद के प्रति शून्य सहनशीलता” की नीति को दोहराया।
- पाकिस्तान का उत्साह: युद्धविराम के बाद पाकिस्तान ने अमेरिका और ट्रंप को धन्यवाद दिया, जिससे यह धारणा बनी कि वह अमेरिकी मध्यस्थता का समर्थन करता है। इसके विपरीत, भारत ने इस मुद्दे पर मौन रहना पसंद किया, जो उसकी असहजता का संकेत था।
- भारत-पाकिस्तान को समान तराजू में रखना: कुछ समाचार रिपोर्टों के अनुसार, अमेरिका ने इस मामले में भारत और पाकिस्तान को समान रूप से देखने की कोशिश की। यह भारत के लिए अस्वीकार्य था, क्योंकि भारत आतंकवाद को प्रायोजित करने वाले देश (पाकिस्तान) और आतंकवाद से लड़ने वाले देश (भारत) को एक समान नहीं मानता।
- अमेरिका का ऐतिहासिक रुख: भारत में कुछ हलकों में यह धारणा है कि अमेरिका का पाकिस्तान के प्रति रुख ऐतिहासिक रूप से नरम रहा है। उदाहरण के लिए, 1971 के युद्ध में अमेरिका ने पाकिस्तान का समर्थन किया था। हाल के वर्षों में भी, अमेरिका ने पाकिस्तान को सैन्य और आर्थिक सहायता प्रदान की है, जिसे भारत संदेह की नजर से देखता है।
भारत की प्रतिक्रिया और नीतिगत रुख
भारत ने इस पूरे घटनाक्रम में अपनी स्थिति को मजबूती से रखा। विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि युद्धविराम भारत की शर्तों पर हुआ और इसमें किसी तीसरे पक्ष की भूमिका नहीं थी। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अमेरिकी सीनेटर मार्को रुबियो के साथ बातचीत में कहा कि भारत की नीति आतंकवाद के खिलाफ कड़ा रुख अपनाने की है, और उसे किसी बाहरी मध्यस्थता की आवश्यकता नहीं है।
भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में भी अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए कदम उठाए। सूत्रों के अनुसार, भारत UNSC की 1267 संधि समिति में पाकिस्तान के आतंकवाद से संबंधों को उजागर करने के लिए नए साक्ष्य पेश करने की योजना बना रहा है। यह कदम भारत की उस रणनीति का हिस्सा है, जिसमें वह आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक समर्थन जुटाने का प्रयास कर रहा है।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने भी इस मामले में अपनी स्थिति स्पष्ट की। पार्टी के प्रवक्ता ने कहा कि युद्धविराम भारत की शर्तों पर हुआ और यह किसी बाहरी दबाव का परिणाम नहीं था। उन्होंने यह भी जोड़ा कि पिछली सरकारों ने समझौतों में रियायतें दी थीं, लेकिन वर्तमान सरकार आतंकवाद के खिलाफ कठोर नीति पर अडिग है।
अमेरिका का दृष्टिकोण: मध्यस्थता या दबाव?
अमेरिका ने इस मामले में संतुलित रुख अपनाने की कोशिश की। अमेरिकी विदेश विभाग ने कहा कि वह भारत-पाकिस्तान तनाव पर नजर रख रहा है और दोनों देशों को संयम बरतने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस ने एक साक्षात्कार में कहा कि अमेरिका का उद्देश्य युद्ध में शामिल होने के बजाय दोनों देशों को शांति की दिशा में ले जाना है।
हालांकि, अमेरिका के कुछ बयानों ने भारत में संदेह पैदा किया। उदाहरण के लिए, अमेरिकी विदेश विभाग की प्रवक्ता ने कश्मीर में हुई हिंसा को “अवैध और अस्वीकार्य” बताया और पाकिस्तान पर आतंकवाद को समर्थन देने का आरोप लगाया। यह बयान भारत के रुख का समर्थन करता है, लेकिन साथ ही अमेरिका ने दोनों देशों से “जिम्मेदाराना समाधान” की दिशा में काम करने का आग्रह किया, जो भारत को असहज कर सकता है।
भारत के लिए निहितार्थ
इस घटनाक्रम के भारत के लिए कई महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं:
- नीतिगत स्वायत्तता: भारत ने स्पष्ट किया है कि वह अपनी नीतिगत स्वायत्तता बनाए रखेगा। युद्धविराम को अपनी शर्तों पर लागू करने का दावा इस बात का संकेत है कि भारत अपनी संप्रभुता और आतंकवाद के खिलाफ नीति पर समझौता नहीं करेगा।
- अंतरराष्ट्रीय समर्थन: भारत ने UNSC और अन्य मंचों पर आतंकवाद के खिलाफ समर्थन जुटाने की कोशिश की है। अमेरिका का पाकिस्तान पर आतंकवाद को समर्थन देने का आरोप भारत के लिए नैतिक जीत है, लेकिन भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसकी स्थिति को गलत तरीके से प्रस्तुत न किया जाए।
- क्षेत्रीय स्थिरता: युद्धविराम ने क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ावा दिया है, लेकिन यह दीर्घकालिक शांति की गारंटी नहीं है। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि पाकिस्तान आतंकवादी गतिविधियों को रोकने के लिए ठोस कदम उठाए।
- भारत-अमेरिका संबंध: इस घटनाक्रम ने भारत-अमेरिका संबंधों में कुछ तनाव को उजागर किया है। भारत को अपने रणनीतिक संबंधों को बनाए रखते हुए अपनी स्वतंत्र नीति पर अडिग रहना होगा।
क्या अमेरिका की मध्यस्थता ने भारत को असहज किया? इस प्रश्न का उत्तर जटिल है। एक ओर, ट्रंप की युद्धविराम घोषणा और अमेरिका की मध्यस्थता ने भारत के लिए कुछ असहज क्षण पैदा किए। दूसरी ओर, भारत ने अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा कि युद्धविराम उसकी शर्तों पर हुआ। यह घटनाक्रम भारत की विदेश नीति की मजबूती को दर्शाता है, जो अपनी संप्रभुता और आतंकवाद के खिलाफ कठोर रुख को प्राथमिकता देता है। भविष्य में, भारत को अपनी नीतिगत स्वायत्तता बनाए रखने, अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने, और क्षेत्रीय शांति के लिए सावधानीपूर्वक रणनीति अपनानी होगी।