
“युद्ध कोई रोमांटिक कहानी नहीं है, न ही यह कोई बॉलीवुड फिल्म का दृश्य है।” यह शक्तिशाली कथन भारत के पूर्व सेना प्रमुख जनरल मनोज मुकुंद नरवणे ने एक सार्वजनिक मंच पर दिया था। उनके ये शब्द न केवल युद्ध की गंभीरता को उजागर करते हैं, बल्कि समाज में युद्ध के प्रति बनी गलत धारणाओं और सिनेमाई चित्रणों पर भी गहरी चोट करते हैं। यह बयान हाल के भारत-पाकिस्तान तनाव और ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के संदर्भ में आया, जो पहलगाम में हुए आतंकी हमले के जवाब में शुरू किया गया था। इस लेख में हम युद्ध की वास्तविकता, इसके मानवीय प्रभाव, कूटनीति की भूमिका और समाज की गलतफहमियों का गहराई से विश्लेषण करेंगे।
युद्ध का असली चेहरा
युद्ध को अक्सर वीरता, देशभक्ति और साहस के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। बॉलीवुड की फिल्में जैसे ‘उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक’, ‘बॉर्डर’ और ‘शेरशाह’ युद्ध को नाटकीय और भावनात्मक ढंग से प्रस्तुत करती हैं, जहां नायक शत्रु को हराकर विजय प्राप्त करता है। लेकिन जनरल नरवणे का बयान इस छवि को तोड़ता है। युद्ध कोई स्क्रिप्टेड कहानी नहीं है, जहां सब कुछ पहले से तय होता है। यह एक जटिल, विनाशकारी और अनिश्चित प्रक्रिया है, जो सैनिकों के साथ-साथ आम नागरिकों, परिवारों और समाज पर गहरा प्रभाव डालती है।
युद्ध का मैदान केवल बंदूकों और बारूद का अखाड़ा नहीं है। यह खून, आंसुओं और मानसिक आघात का परिदृश्य है। सैनिक न केवल शारीरिक यातनाओं से गुजरते हैं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक चुनौतियों का भी सामना करते हैं। सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोग, विशेषकर बच्चे, रातें बंकरों में डर के साये में बिताते हैं। उनके मन पर पड़ने वाला यह आघात पीढ़ियों तक बना रहता है। पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) जैसी समस्याएं युद्ध की ऐसी सच्चाई हैं, जो सिल्वर स्क्रीन पर शायद ही कभी दिखाई देती हैं।
मानवीय कीमत: युद्ध का सबसे बड़ा दुख
युद्ध की सबसे बड़ी त्रासदी उसकी मानवीय कीमत है। सैनिकों की शहादत, नागरिकों की जान का नुकसान और बुनियादी ढांचे का विनाश युद्ध के तात्कालिक परिणाम हैं। लेकिन इसके दीर्घकालिक प्रभाव और भी भयावह हैं। युद्धग्रस्त क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं और आर्थिक गतिविधियां ठप हो जाती हैं। बच्चे स्कूल से वंचित हो जाते हैं, परिवार बेघर हो जाते हैं, और समाज में भय और अविश्वास की भावना घर कर जाती है।
पहलगाम में हुए आतंकी हमले, जिसके जवाब में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ शुरू हुआ, ने कई बेगुनाह लोगों की जान ले ली। इस घटना ने न केवल पीड़ित परिवारों को तोड़ा, बल्कि देश में गुस्से और प्रतिशोध की भावना को भड़काया। जनरल नरवणे ने इसे “गंभीर मामला” बताते हुए जोर दिया कि युद्ध को अंतिम विकल्प के रूप में देखा जाना चाहिए। उनके शब्द, “यह युद्ध का युग नहीं है,” युद्ध की भयावहता और इससे बचने की जरूरत को रेखांकित करते हैं।
कूटनीति: शांति का रास्ता
जनरल नरवणे ने कूटनीति को युद्ध का सबसे बेहतर विकल्प बताया। उन्होंने कहा, “मेरी पहली प्राथमिकता कूटनीति होगी। मतभेदों को बातचीत से सुलझाना चाहिए, ताकि सशस्त्र संघर्ष की नौबत न आए।” यह दृष्टिकोण आधुनिक विश्व में समस्याओं के समाधान के लिए सहयोग और संवाद की आवश्यकता को दर्शाता है। भारत और पाकिस्तान जैसे देशों के बीच लंबे समय से चले आ रहे तनावों को देखते हुए कूटनीति का महत्व और बढ़ जाता है।
कूटनीति युद्ध की तुलना में कम विनाशकारी और अधिक टिकाऊ समाधान प्रदान करती है। इतिहास गवाह है कि कूटनीति ने कई बार युद्ध को रोका है। उदाहरण के लिए, कारगिल युद्ध के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच कई दौर की बातचीत ने तनाव को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि, कूटनीति के लिए धैर्य, समझौता और आपसी विश्वास की जरूरत होती है। जनरल नरवणे ने यह भी कहा कि यदि युद्ध थोपा जाता है, तो सैनिक के रूप में वह अपने कर्तव्य का निर्वहन करेंगे। यह संतुलित दृष्टिकोण सैन्य और कूटनीतिक तैयारी के बीच सामंजस्य को दर्शाता है।
बॉलीवुड का युद्ध चित्रण: सच्चाई से कोसों दूर
बॉलीवुड ने युद्ध को अक्सर देशभक्ति और बलिदान की रोमांटिक कहानियों के साथ जोड़ा है। ‘लक्ष्य’, ‘सैम बहादुर’ और ‘बॉर्डर’ जैसी फिल्में दर्शकों में जोश और गर्व की भावना जगाती हैं, लेकिन युद्ध की जटिलता और दुख को सरल बना देती हैं। हाल ही में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर आधारित एक फिल्म की घोषणा ने विवाद खड़ा किया। इसे समय से पहले और असंवेदनशील कदम माना गया, जिसके लिए निर्माताओं को माफी मांगनी पड़ी। यह घटना युद्ध को मनोरंजन के रूप में प्रस्तुत करने की गलती को उजागर करती है।
युद्ध को सिनेमाई चमक-दमक के साथ दिखाना न केवल इसके पीड़ितों का अपमान है, बल्कि समाज में गलत धारणाएं भी पैदा करता है। युद्ध कोई रोमांचक खेल नहीं है; यह जीवन, सपनों और आशाओं को नष्ट करने वाली त्रासदी है।
समाज और युद्ध की गलतफहमियां
सोशल मीडिया और फिल्मों के प्रभाव से समाज में युद्ध को लेकर कई गलतफहमियां पैदा हुई हैं। लोग इसे रोमांचक और विजयी घटना के रूप में देखते हैं। जनरल नरवणे ने उन लोगों की आलोचना की, जो पूर्ण युद्ध की वकालत करते हैं। उनका कहना था, “लोग पूछते हैं कि हमने पूर्ण युद्ध क्यों नहीं किया।” यह सवाल समाज की युद्ध के प्रति अपरिपक्व समझ को दर्शाता है।
आधुनिक युद्धों में परमाणु हथियारों और उन्नत तकनीक ने विनाश की क्षमता को कई गुना बढ़ा दिया है। युद्ध कोई जीत-हार का खेल नहीं है; यह सभी पक्षों को नुकसान पहुंचाने वाली प्रक्रिया है। इसलिए, इसे अंतिम विकल्प के रूप में देखना चाहिए।
युद्ध की रोकथाम: हमारी सामूहिक जिम्मेदारी
युद्ध की रोकथाम केवल सरकार या सेना का दायित्व नहीं है। जनरल नरवणे ने कहा, “हम सभी राष्ट्रीय सुरक्षा के हितधारक हैं।” यह कथन समाज को एकजुट होकर शांति और सहिष्णुता की संस्कृति को बढ़ावा देने का आह्वान करता है। शिक्षा, जागरूकता और संवाद के जरिए हम मतभेदों को हिंसा के बजाय बातचीत से सुलझा सकते हैं।
जनरल मनोज मुकुंद नरवणे का बयान हमें युद्ध की गंभीरता और शांति की आवश्यकता पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है। युद्ध न तो रोमांटिक है, न ही सिनेमाई। यह एक ऐसी त्रासदी है, जो मानवता को तोड़ देती है। हमें युद्ध को गौरवान्वित करने के बजाय कूटनीति और शांति को प्राथमिकता देनी चाहिए। यह न केवल हमारे देश, बल्कि पूरी दुनिया के हित में है। आइए, हम एक ऐसी दुनिया की ओर बढ़ें, जहां मतभेद संवाद से सुलझाए जाएं और हिंसा का सहारा न लेना पड़े।